टाइम बम की तरह फट सकती है हाइड्रोजन ट्रेन! इस ग्रीन एनर्जी को बनाने में ही राख हो जाएगा हजारों टन कोयला

Updated on 15-11-2024 02:38 PM
नई दिल्ली: 1825 में दुनिया की पहली रेलवे लाइन खोले जाने के 200 साल से अधिक समय हो गया है। उस वक्त कोयले से चलने वाले भाप इंजन इंग्लैंड के उत्तर में दो शहरों को जोड़ते थे। दो शताब्दियों के बाद रेल इंडस्ट्री अब बड़े पैमाने पर कोयले से दूर जा चुकी है। आज मॉडर्न ट्रेनें डीजल और इलेक्ट्रिक इंजनों से चलती हैं। नए दौर में अब विकास के साथ-साथ स्थिरता की बात हो रही है, ऐसे में रेलवे इंजन एनर्जी सोर्स के रूप में बिजली और हाइड्रोजन पर ज्यादा फोकस कर रहे हैं। भारत में भी हाइड्रोजन ट्रेन चलाए जाने की प्रक्रिया शुरू हो गई है, जिसे हाइड्रेल भी कहा जाता है। मगर, जिस ग्रीन एनर्जी को इतना ग्रीन कहा जा रहा है, उसके पीछे का काला सच क्या है? हाइड्रोजन एनर्जी की चुनौतियों को समझते हैं।

हाइड्रोजन फ्यूल सेल से कैसे पैदा होती है बिजली, यहां समझिए


हाइड्रोजन फ्यूल सेल ऑक्सीजन के साथ मिलकर बिजली पैदा करते हैं, जिसका बाय प्रोडॅक्ट केवल भाप और पानी होता है। नतीजतन जीरो कार्बन उत्सर्जन होता है। इसके लिए हाइड्रोजन फ्यूल सेल में एक कंबस्चन इंजन होता है। यह एक केमिकल रिएक्शन के बाद बिजली पैदा करता है। यह केमिकल रिएक्शन दो इलेक्ट्रोड्स के जरिए होता है।- पहला एक निगेटिव एनोड और दूसरा पॉजिटव कैथोड। हाइड्रोजन तब फ्यूल के रूप में काम करता है, जब यह ऑक्सीजन के साथ मिलता है। इस मिलन के दौरान ही इलेक्ट्रिकल एनर्जी पैदा होती है। साथ में पानी और हीट निकलती है।

ट्रेनों के लिए हाइड्रोजन एनर्जी एक खतरनाक विकल्प


ब्रिटेन की रेलवे डिपार्टमेंट में काम करने वाले सीनियर सॉफ्टवेयर इंजीनियर स्टीव बेकर के अनुसार, ट्रेनों के लिए हाइड्रोजन एनर्जी का एक खतरनाक विकल्प है। आम तौर पर ज्यादातर हाइड्रोजन 'स्टीम रिफॉर्मेशन' तकनीक से बनाए जाते हैं। भाप बनने की इस प्रक्रिया में बहुत सारा पानी बर्बाद होता है और कोयला जैसे फॉसिल फ्यूल का इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रॉसेस में डीजल ईंधन से कार्बन डाईआक्साइड पैदा होती है। यह ग्लोबम वॉर्मिंग को और बदतर बना सकता है। इसे इतने ज्यादा दबाव में टैंकों में स्टोर किया जाता है कि इसके टाइम बम की तरह फटने का खतरा बना रहता है।

इलेक्ट्रोलिसिस प्रॉसेस में खूब बर्बाद होती है एनर्जी


स्टीव बेकर कहते हैं कि हाइड्रोजन बनाने का दूसरा तरीका पानी का इलेक्ट्रोलिसिस किया जाता है। पानी में हाइड्रोजन के दो अणुओं के साथ ऑक्सीजन का एक अणु होता है। इसे बनाने में बड़ी मात्रा में बिजली इस्तेमाल की जाती है, जो जीवाश्म ईंधनों से ही बनती है। इसमें एनर्जी काफी बर्बाद होती है और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले फॉसिल फ्यूल का भी बेतहाशा इस्तेमाल होता है। जीरो कार्बन उत्सर्जन वाली ट्रेनें बनाने का यह कोई अच्छा तरीका नहीं है।

हाइड्रोजन पॉवर ट्रेनें चलाने से पहले करने होंगे ये काम


इलेक्ट्रिक से ट्रेनें चलाना कहीं अधिक सस्ता और ज्यादा कुशल है। हाइड्रोजन पॉवर ट्रेन चलाने के लिए सबसे बड़ा मसला कैटेनरी केबल को बनाने का है। हाइड्रोजन फ्यूल आधारित ट्रेन चलाने के लिए सभी लोकोमोटिव को बदलने की जरूरत पड़ेगी। इसके अलावा, ट्रेन ट्रैक के साथ हाइड्रोजन भंडारण/फिलिंग स्टेशन बनाना होगा। हर जगह हाइड्रोजन पाइपलाइन जोड़नी होगी। दुनिया में ज्यादातर डीजल लोकोमोटिव वास्तव में डीजल-इलेक्ट्रिक हैं। यानी वे डीजल इंजन का उपयोग बिजली पैदा करने में करते हैं जो इलेक्ट्रिक मोटर्स को चलाता है। यह एक हाइब्रिड कार की तरह होते हैं। ऐसी ट्रेन को इलेक्ट्रिक होने के लिए बस ओवरहेड केबल से बिजली लेना है।

ट्रेनों को ताकत देने की राह में ये हैं चुनौतियां


Fuel cell technology के लिए अभी और सुधार होना है। साथ ही फ्यूल सेल का वजन कम करना और क्षमता को बढ़ाना भी बड़ी चुनौती होगी। फ्यूल सेल्स हाइड्रोजन की केमिकल एनर्जी को इलेक्ट्रिसिटी में बदलते हैं। यह इलेक्ट्रोलिसिस प्रॉसेस का उल्टा है, जिसका इस्तेमाल हाइड्रोजन फ्यूल बनाने में किया जाता है। इस प्रॉसेस के दौश्रान बड़ी मात्रा में एनर्जी लॉस होती है। इससे ऐसे फ्यूल सेल की क्षमता 30 फीसदी तक कम हो जाती है। यह इलेक्ट्रिसिटी एक मोटर से गुजारी जाती, जिससे ट्रेन को दौड़ने के लिए ताकत मिलती है।

किसने कहा हाइड्रोजन रेल को हाइड्रेल


हाइड्रेल शब्द का उल्लेख सबसे पहले एटीएंडटी के रणनीतिक योजनाकार स्टैन थॉम्पसन ने किया था, जिन्होंने अमेरिकी परिवहन विभाग के वोल्पे ट्रांसपोर्टेशन सिस्टम सेंटर में 'द मूर्सविले हाइड्रेल इनिशिएटिव' स्पीच दी थी। हाइड्रेल शब्द पहली बार तब छपा जब स्टैन थॉम्पसन और जिम बोमन ने इसे 17 फरवरी 2004 को हाइड्रोजन एनर्जी के अंतरराष्ट्रीय जर्नल में हाइड्रोजन रेल के लिए इस्तेमाल किया।

दुनिया की पहली हाइड्रेल जर्मनी में चली


दुनिया की पहली हाइड्रोजन से चलने वाली ट्रेन जर्मनी में 16 सितंबर, 2018 को शुरू हुई थी। इस ट्रेन को फ़्रांसीसी कंपनी एल्सटॉम ने बनाया था। यह ट्रेन उत्तरी जर्मनी में 62 मील लंबी लाइन पर चलती है। इस मामले में जर्मनी, जापान, चीन और ब्रिटेन के अलावा अमेरिका में भी हाइड्रोजन ट्रेन सीमित स्तरों पर चल रही हैं। भारत में भी ऐसी ट्रेन के 2025 तक चलने की उम्मीद है।

हाइड्रोजन को गैस या लिक्विड फॉर्म में करना होगा स्टोर


हाइड्रोजन को फ्यूल के रूप में इस्तेमाल के लिए पहले उसे गैस या लिक्विड फॉर्म में स्टोर करना होता है। गैस के रूप में हाइड्रोजन के भंडारण के लिए आमतौर पर हाई प्रेशर वाले टैंक (350-700 बार) की जरूरत होती है। तरल के रूप में हाइड्रोजन को स्टोर करने के लिए क्रायोजेनिक टेंपरेचर की आवश्यकता होती है। यह हवा के संपर्क में आते ही जल उठता है। ऐसे में एक छोटी सी चिंगारी या टैंक में लीकेज भी बड़ा धमाका कर सकती है।

हाइड्रोजन हासिल करने की तकनीक काफी महंगी


हाइड्रोजन पूरे ब्रह्मांड में सबसे ज्यादा मात्रा में पाया जाने वाला तत्व है और इसे समुद्री जल से अलग किया जा सकता है। हालांकि, हाइड्रोजन प्राप्त करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक काफी महंगी है। हाइड्रोजन एनर्जी हासिल करने के लिए भाप बनाते हैं, जिस प्रक्रिया में कोयला, लकड़ी जैसे नुकसानदायक जीवाश्म ईंधन का उपयोग किया जाता है। वहीं, सूर्य, हवा जैसे अक्षय ऊर्जा में कोई कार्बन उत्सर्जन नहीं होता है।

इतनी खर्चीली प्रक्रिया कि इसमें निवेश की जरूरत


प्राकृतिक गैस या डीजल ईंधन के विपरीत इलेक्ट्रोलिसिस से बना हाइड्रोजन फ्यूल तकरीबन शून्य उत्सर्जन पैदा करता है। वहीं, भाप की प्रक्रिया से बने हाइड्रोजन अभी भी डीजल ट्रेनों की तुलना में 45% कम उत्सर्जन पैदा करता है। हालांकि, यह प्रक्रिया इतनी खर्चीली है कि इसके प्रोडॅक्शन और डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क में पर्याप्त निवेश की जरूरत होगी।

इलेक्ट्रिक ट्रेनों के मुकाबले 80 फीसदी तक महंगी


जर्मनी की एक स्टडी के अनुसार, हाइड्रोजन ट्रेनें इलेक्ट्रिक ट्रेनों की तुलना में 80% अधिक महंगी हो सकती हैं। वीडीई के एक अध्ययन में पाया गया कि बैटरी इलेक्ट्रिक मल्टीपल यूनिट्स (बीईएमयू) को खरीदना और उसे चलाना हाइड्रोजन इलेक्ट्रिक मल्टीपल यूनिट्स (एचईएमयू) की तुलना में 35% तक कम महंगा हो सकता है। एक पैसेंजर ट्रेन के लिए हाइड्रोजन फ्यूल सेल की लागत लगभग 12 करोड़ रुपए तक हो सकती है।

पहली हाइड्रोजन ट्रेन कहां से कहां तक दौड़ेगी


हर हाइड्रोजन ट्रेन को बनाने में अनुमानित तौर पर करीब 80 करोड़ रुपए की लागत आती है। पहली हाइड्रोजन ट्रेन हरियाणा में 90 किलोमीटर लंबे जींद-सोनीपत रूट पर चलने की उम्मीद है। इसके साथ ही दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे, नीलगिरि माउंटेन रेलवे और कालका-शिमला रेलवे जैसे रूटों पर भी 2025 तक 35 हाइड्रोजन ट्रेनें चलाए जाने की उम्मीद है।

स्विस हाइड्रोजन ट्रेन ने बनाया विश्व रिकॉर्ड


इसी साल मार्च में स्विस कंपनी स्टैडलर ने हाइड्रोजन से चलने वाली ट्रेन दौड़ाकर वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया। FLIRT-H2 नाम की इस ट्रेन ने 1,741 मील यानी 2,803 किमी तक बिना रुके 46 घंटे की यात्रा करने के बाद एक नया गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया था। यह उपलब्धि अमेरिका के कोलोराडो में टेस्ट के दौरान हासिल की गई।

भारत क्यों हाइड्रेल शुरू कर रहा है


भारत ने 2015 के पेरिस जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और इस समझौते का एक बड़ा मकसद CO2 उत्सर्जन को कम करना है। यही वजह है कि भारतीय रेलवे ने 2030 तक मिशन नेट जीरो कार्बन उत्सर्जन रेलवे की स्थापना की है। मिशन का लक्ष्य इसके CO2 पैदा करने वाले कंपोंनेंट को पूरी तरह से खत्म करना है।

आरामदायक, सुरक्षित और स्वच्छ सफर


ऐसा नहीं है कि हाइड्रोजन फ्यूल के खतरे ही हैं। अगर, कुछ जरूरी बाधाओं को दूर कर लिया जाए तो यह अगली पीढ़ी की ट्रेनों के लिए अहम ऊर्जा सोर्स बन सकता है। अगर एक बार हाइड्रोजन ट्रेनों के लिए स्ट्रक्चर तैयार हो गया तो भावी पीढ़ी के आरामदायक, सुरक्षित और स्वच्छ सफर के लिए जादू साबित होगा।

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