इसी के साथ बढ़ी ठगी
हालांकि, इस तेज़ी से हो रही वृद्धि के साथ कई साइबर संबंधी समस्याएं भी सामने आई हैं। आज हम कई ऐसे मामलों में वृद्धि देख रहे हैं जहां ग्राहक धोखाधड़ी करने वाले ठगों के जाल में फंस गए हैं। इसके परिणामस्वरूप उन्हें आर्थिक नुकसान हुआ है। अभी बीते अगस्त में ही भारतीय जांच एजेंसियों ने एक फिनटेक घोटाले का भंडाफोड़ किया, जिसमें भारतीय और चीनी नागरिकों, इंस्टेंट मैसेजिंग ऐप्स, कंपनियों और क्रिप्टो एक्सचेंजों के जटिल नेटवर्क के माध्यम से धन की हेराफेरी की जा रही थी। कई मामलों में एजेंसियों ने चीनी लोन ऐप्स पर शिकंजा कसा, जो अनजान उपभोक्ताओं को शोषणकारी उधारी प्रथाओं में फंसाते थे। अहमदाबाद स्थित एक अन्य फिनटेक कंपनी पर आरोप लगा कि उसने अवैध सट्टेबाजी के जरिये सैकड़ों करोड़ रुपये की मनी लॉन्ड्रिंग के लिए 150 बैंक खातों का उपयोग किया।
इससे बचने का क्या है तरीका?
गेमिंग सेक्टर में इस समस्या से निपटने का एक व्यावहारिक तरीका 'व्हाइटलिस्ट' फ्रेमवर्क बनाना हो सकता है। सरल शब्दों में, 'व्हाइटलिस्ट' एक सिस्टम है जो वैध और अवैध व्यवसायों या ऐप्स के बीच अंतर करता है। यह तंत्र फिनटेक, गेमिंग, क्रिप्टो, ओटीटी या सोशल मीडिया जैसे सभी डिजिटल अर्थव्यवस्था के क्षेत्रों के लिए समान रूप से प्रभावी हो सकता है। वैध ऐप्स को अवैध ऐप्स से अलग करना एक नियामक पहेली की तरह लग सकता है, लेकिन इसे चार आसान सवालों के माध्यम से सरल बनाया जा सकता है। उचित जांच और संतुलन बनाए रखने के लिए, सरकार को यह जानना होगा...
1. क्या कंपनी भारत में पंजीकृत है और उसके कार्यालय भारत में स्थित हैं?
2. क्या कंपनी भारत में GST का भुगतान करने के लिए पंजीकृत है?
3. क्या कंपनी खुद घोषणा करती है कि वह अपने क्षेत्र से संबंधित कर, शिकायत निवारण, विज्ञापन और उत्पाद/सेवा की गुणवत्ता पर लागू कानूनों का पालन करती है?
4. जो व्यवसाय उपरोक्त मानदंडों का पालन करते हैं, उन्हें सद्भावना से काम करने वाला माना जा सकता है और उन्हें 'विश्वास का प्रतीक' दिया जा सकता है, जो सही और गलत को अलग करने में मदद करेगा।
ऑफलाइन व्हाइटलिस्ट फ्रेमवर्क
साइबरस्पेस और उसमें होने वाले अपराध गुमनामी पर आधारित होते हैं, जहां बेनाम, पहचानहीन तत्व सक्रिय रहते हैं। 'विश्वास का प्रतीक' बनाकर, उपभोक्ता वैध व्यवसायों को पहचान सकते हैं जो कानूनी और उच्च क्वालिटी वाली सेवाएं और उत्पाद प्रदान करते हैं, और उन्हें अवैध व अस्थायी ऑपरेटरों से अलग कर सकते हैं। इसका एक ऑफलाइन उदाहरण 'ISI' मार्क है, जो 1950 से उत्पादों के लिए गुणवत्ता और अनुपालन का एक मानक चिह्न बन गया है। एक तरफ, इसने उपभोक्ताओं को गुणवत्तापूर्ण उत्पादों की पहचान करने और उन्हें खरीदने में मदद की, और दूसरी तरफ, इसने निर्माताओं के लिए एक मानक स्थापित किया जो बाजार में व्यापार करना चाहते थे।
जरूरत है 'विश्वास के प्रतीक' की
डिजिटल इकोसिस्टम को ऐसे ही 'विश्वास के प्रतीक' की जरूरत है, जो ग्राहकों को यह आश्वासन दे सके कि उत्पाद कानूनी, प्रामाणिक और भारत के डिजिटल कानूनों के अनुरूप है। इस विश्वास-निर्माण के प्रयास की जिम्मेदारी केवल व्यवसायों के कंधों पर नहीं होनी चाहिए। सभी व्यवसाय इसे जरूरी नहीं मान सकते, और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ग्राहक उन 'विश्वास के प्रतीकों' पर भरोसा नहीं कर सकते जो निजी व्यवसायों द्वारा बनाए गए हों। इसलिए, तेजी से बदलते डिजिटल दौर से आगे रहने के लिए उद्योग, सरकार और समाज के बीच एक समन्वित और सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है।